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“भ्रमित पथिक”

yogendra yadav
yogendra yadav
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कर्म क्या है,ज्ञान क्या है,
प्रवत्ति क्या है निवृत्ति क्या है,
क्या है कहीं आस्तित्व सतचितानंद का?
यदि हाँ तो यह जीवन की आव्रति क्या है
बाइबिल पढ़ूँ, क़ुरान पढ़ूँ.
गुरु ग्रंथ सुनूँ या गीता का रशपान करूँ.
मंदिर जाऊं, मस्जिद जाऊं
या सीस छुका गिरजे का सम्मान करूँ.
धर्म क्या है संस्क्रति क्या है
अरे इस मानव मन की प्रकति क्या है
क्या है कहीं आस्तित्व सतचितानंद का?
यदि हाँ तो यह जीवन की आव्रति क्या है /
भोग का त्याग करूँ,या त्यागपूर्वक भोग करूँ.
जीवन पथ पर विचलित ‘योगी’
भला क्या मैं उद्योग करूँ?
एक व्याकुलता सी है, एक भ्रम सा है
परिमित है यह प्रग्या मेरी
असमंजस! भला कैसे इसका उपयोग करूँ?
जन्म क्या है? मृत्‍यु क्या है ?
जन्म मरण की पुनरावृत्ति क्या है ?
क्या है कहीं आस्तित्व सतचितानंद का?
यदि हाँ तो यह जीवन की आवृत्ति क्या है.
मन कहता है मई भी “योगी” बन जाउ
वन वन खोजू राम को मई भी वनवासी कहलाऊ.
कितनी पावन यह मेरी प्यारी,
घूमू मक्का, अमृतसर, व्रंदावन काशी हो आउ.
आसक्ति क्या है , विरक्त्ति क्या है?
योग या कर्मयोग तेरी स्वीकृति क्या है?
क्या है कहीं आस्तित्व सतचितानंद का?
यदि हाँ तो यह जीवन की आव्रति क्या है……..

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